सियासत
सियासत दिल पे घाव देती है
बिना चावल पोलाव देती है
बाढ. से पार उतरने के लिए
हमको क़ाग़ज़ की नाव देती है
विकास योजना सरकार लिए बैठी है
क़श्तियां हैं नहीं पतवार लिए बैठी है
ऐसा लगता है सियासत को देखकर यारो
जैसे विधवा कोई श्रृंगार किए बैठी है
बंद बंगलों में हुकूमत की चमक बैठी है
लाल बत्ती के सायरन में धमक बैठी है
हमारे ज़ख्मों पे फिर मरहम लगाने के लिए
सियासत हाथों में लेकर के नमक बैठी है
ना तो आंगन में सुबह शाम का फेरा होता
ना आसमां में किसी चांद का डेरा होता
अगर सूरज पे सियासत की हुकूमत चलती
तो सिर्फ़ उनके घरों में ही उजेरा होता
DR. SUNIL JOGI
DELHI, INDIA
CONTACT ON O9811005255
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Wednesday, August 15, 2007
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