Thursday, August 2, 2007
बरखा की डोली
बरखा की डोली लिए, आए मेघ कहार
धरती माँ की गोद में, रिमझिम पड़ी फुहार
टॉर्च दिखाती दामिनी, लिए नगाड़े संग
पानी का मांजा लिए, बादल बने पतंग
बरखा रानी हो गई, सज धज कर तैयार
रंग-बिरंगी छतरियों का आया त्यौहार
छम छम छम करने लगे, यों बूँदों के साज़
ज्यों आँगन में नाचते, हों बिरजू महाराज
बदरी से मिलने चले, बादल भरे उमंग
श्वेत रंग काला हुआ, शक्ल हुई बदरंग
दुखिया छप्पर के तले, भीगा सारी रात
तन करके मेहमान-सी, घर आई बरसात
सोम रंग से भी बड़ा, पानी तेरा रंग
एक घूँट से धूप की, उतर गई सब भंग
सिंहासन बादल चढ़े, धूप हुई कंगाल
उछले-उछले गाँव में, घूम रहे हैं ताल
पिया बसे परदेस में, गोरी है बेचैन
सावन भादों बन गए, दो कजरारे नैन
छप्पर ने मुँह धो लिए, चमक उठी खपरैल
इक बारिश में धुल गया, मन का सारा मैल
सदियों से जाती रही, मैं सागर के पास
नदिया बोली मेघ से, आज बुझी है प्यास
पावस आई कट गई, फिर पतझड़ की नाक
सब पेड़ों ने पहन ली, हरी-हरी पोशाक
बच्चे बारिश देखकर, गए खुशी से फूल
'रेनी डे' -में हो गए, बंद सभी स्कूल
सुनकर बादल बूँद के, टूट गए संबंध
नदी तोड़ कर चल पड़ी, तट के सब अनुबंध
-सुनील जोगी
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