हर इक मूरत ज़रूरत भर का, पत्थर ढूंढ लेती है
कि जैसे नींद अपने आप, बिस्तर ढूंढ लेती है
अगर हो हौसला दिल में, तो मंजिल मिल ही जाती है
नदी ख़ुद अपने क़दमों से, समन्दर ढूंढ लेती है
तू नदी है तो अलग अपना, रास्ता रखना
न किसी राह के, पत्थर से वास्ता रखना
पास जाएगी तो खुद, उसमें डूब जाएगी
अगर मिले भी समन्दर, तो फासला रखना
वो जिनके दम से जहां में, तेरी खुदाई है
उन्हीं लोगों के लबों से, ये सदा आई है
समन्दर तो बना दिए, मगर बता मौला
तूने सहरा में नदी, क्यूं नहीं बनाई है
हौसलों को रात दिन, दिखला रही है देखिए
परबतों से लड. रही, बल खा रही है देखिए
किसकी हिम्मत है जो, उसको रोक लेगा राह में
इक नदी सागर से मिलने जा रही है देखिए
DR. SUNIL JOGI DELHI, INDIA
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Tuesday, September 11, 2007
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3 comments:
बढ़िया है, सुनील भाई.
goooodddd...
nic poem
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